पहला पग

बयाँ कर रहा हूँ उस लम्हे को ,
जब एक लाडला घर से दूर नौकरी करने जा रहा होता है |
निकल रहा होता है कुछ नये सपने संजोय कर ,
और माँ का दामन छुट रहा होता है |
उस बच्चे से छुट रहा होता है वो घर ,वो आंगन
जिसमे उसका बचपन बीता था |
दूर हो रहा होता है वो प्यारा आँचल का छांव
जिसके तले वो बेफिक्र जिंदगी जीता था |
वो दोस्त भी पीछे छुट रहे होते है,
जिनके साथ खेलते-घूमते हर शाम यूँ गुजर जाती थी |
वो गलियाँ ,वो बगीचे और माँ की हाथों की बनी रोटी ,
जो बस सुकून ही सुकून दे जाती थी |
कई यादों को सामान के साथ बांध कर
वो आगे कदम बढ़ा रहा होता है
कई अधूरी ख्वाहिशों को अपनाकर
नए शहर को अपना बनाने जा रहा होता है
अपने सामान से भरा बैग उठाकर वो
भीगी भीगी आँखों से सबको देखने लग जाता है
माँ – पापा और कुछ अपनों के मोह रोकते है उसे
पर वो अपने आप को ही समझाता है |
वो नौजवान एक झूठी मुस्कान दिखाता तो है
पर उसका दिल अन्दर से रोता है
और बयाँ कर रहा हूँ उस लम्हे को
जब वो दुलारा घर से दूर नौकरी करने जा रहा होता है
वो रुआंसा सा हो जाता है यह सोचकर
अब आगे से अपने ही घर में मेहमान बन कर आऊंगा
लौटूंगा कल को चाहरदिवारी में जरुर
लेकिन चंद दिनों में वापस लौट जाऊँगा ||
नम आँखें हो जाती है उसकी
जहन में कई रिश्तो का मोह उमड़ने लगता है
वो घडी उसे बेहद मुश्किल लगती है
जब वो घर की दहलीज लांघता है |
मोह होता है उसे अपनी मां से दूर जाने का
अपनी मन की बादशाहत को खो जाने का
अब उसे हर तकलीफ से बचाने माँ की आँचल नही होगी
विक्षोभ होता है अपने बचपन गुजर जाने का |
उस सफ़र में वो समझाते जाता है
अपने आप को हौसला दिए जाता है
वक़्त है सपनो को साकार करने का
माँ-पापा के सपनो को सच बनाने का
रास्ते में उसका मन शांत और
अनकहे सवालातों से जूझता है
कैसे रहूँगा मां –पापा के बगैर अनजाने शहर में
ये अपने आप से ही वो पूछता है |
कभी कभी वो आंसुओं को
रोकने में असमर्थ सा हो जाता है
जिन आंसुओ को घर में गिरने पर पाबन्दी थी
अब वो धीरे से बस उनको पोछ लेता है ||
साथ ही निहार रहा होता है उस बैग को
जो अब उसके नाम के साथ बंधा जा चूका है
कभी रोता हुआ कभी संभालता हुआ समझाता है खुद को
की अब वो बड़ा हो चूका है |
उस सफ़र में बस वो अपनी
हर यादों को सहेज रहा होता है
बयाँ किया उन लम्हों को जब
घर का लाडला नौकरी करने जा रहा होता है ||
By: Nishant Kumar Mishra