शायद तुझको हार गया मैं

यूँ ही तन्हा बैठा था मैं
था सोच रहा, शायद तुझको हार गया मैं…..

हार गया आगे के सारे लम्हों को…
आगे की सारी खुशियों के साथ तमाम गमो को |

शायद अब तेरा हाथ पकड़ने का मुझे हक़ न रहा…..
नैनो के पानी के साथ साथ नजरो का मोह भी दूर बहा |

मैं हार गया सारी वजहें तुझको एकटक निहारने की…
 तुझे खुश रखने की, शायद तुझसे बेबाक बातें बनाने की |

हार गया वो सुकून भी जो तेरी बातों से पाता था…..
वो मुस्कुराहटें , जो तेरी हंसी के साथ मेरे लबों पे आता था |

तेरा वो बचपना भी, और तेरी भोली-प्यारी बातों को….
तुझसे बात करते गुजरने वाली, उन खुशनुमा रातों को |

शायद वो तेरी प्यारी सी दस्तक, जिसका दिल इन्तेजार करता था
वो ढेर सारी बातों का सिलसिला जो रुकाए नहीं रुकता था |

इन सवालो को अपने आप में लगातार दोहरा रहा था मैं
यूं ही तनहा बैठ सोच रहा था, शायद तुझको हार गया मैं |

हार गया वो बरसते सावन के बूंदों को
तारो से बात कर गुजरने वाली मेरी शामों को

वो तेरे एहसास भी जो दिल में घूमते रहते थे
तेरी वो बातें जो अकेलेपन की हंसी बनते थे

शायद हार गया वो हक जो तुझपे जताया करता था
कुछ शब्दों की वो शायरी जो तुझको शौक से सुनाया करता था

मै हार गया तेरी सलामती के लिए मांगे अरदास को
तुम्हे मेरी फ़िक्र है ‘अपने दिल में दबाये इस आस को |

वो बेफिक्री से भरा सिलसिला तेरे खैरियत पूछने का
वो कौतुक तेरी हर उदासी में शरीक होने का |

वो शिद्दत जो मेरे-तेरे रिश्ते के लिए मैंने अपनाया था
वो सारी कोशिशे जो मुस्कान बरक़रार रखने के लिए अजमाया था

हार गया ….. क्या सच में हार गया बस यही विचारना विचार रहा था मैं
तनहा बैठ था सोच रहा शायद तुझको हार गया मैं |

 
By: Nishant Kumar Mishra
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