सुन जिंदगी..

सुन जिंदगी, ज्यादा मुझे सता मत
कई पैंतरों का रूप दिखा कर, ऐसे उलझा मत |
बचपन में तुझसे कितना प्यार करता था मैं
तुझको खोने से कितना डरता था मैं |
पर सयाना क्या हुआ,अब तू तो रूठने सी लगी है
तुझसे किये हर उम्मीद की डोर टूटने सी लगी है |
तुझे पता है,उस वक़्त तू सुलझी हुई लगती थी
और तेरी मेरी पटरी भी तो बहुत बनती थी |
तुझसे मैं संतुष्ट और खुश रहता था
तुझको जीने में अलग मजा आता था |
यूँ अपने आप को मुझसे तू रूठा मत
सुन जिंदगी ,ज्यादा मुझे सता मत |
तेरे साथ जो उन दिनों चलता था
उस वक़्त भी कहीं न कहीं जरुर उलझता था
पर वहां वो सब कुछ समय के साथ संभल जाता था
यूँ आज के जैसे कमजोर नही पड़ता था |
जब आजकल ,तू परीक्षा लेती है
हर पड़ाव पे नई मुश्किल खड़ा देती हैं |
तू समय के साथ रूप बदलती है
स्थितियों के विपरीत प्रशन पूछती है |
यूँ मुझे अजीबोगरीब तरीके का खेल अपने साथ खेला मत
सुन जिंदगी ,ज्यादा मुझे सता मत |
पूछना चाहता हूँ , तू इतनी निष्ठुर क्यों हो जाती है
आखिर क्यों इस कदर परेशान करने लग जाती है
जैसा सब चल रहा था ,वैसे चलने देती,
आने वाले दिनों में अपना रंग न बदलती
गर सब कुछ पहले जैसा रहता,
ऐसे तुझसे कोई तेरी शिकायतें नही करता |
खैर जो तूने किया सो किया जितने आंसू और उदासी दिया उतना दिया |
अब आ… बैठ सुलह कर लेते है,यूँ दूर मुझसे भाग मत
सुन जिंदगी ,अब मुझे उलझा मत, अब मुझे सता मत |